आम तौर पर सबका यही मानना है कि फरवरी-मार्च 2022 में प्रस्तावित उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर विधानसभा के चुनावों में भाजपा की जीत सुनिश्चित करने के लिए प्रधानंत्री मोदी ने ये कदम उठाया है। Trending Blogs सबसे ज्यादा अहम उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब है, जहां किसान आंदोलन का खासा असर भाजपा के लिए मुसीबत का सबब बना हुआ था। जिन तीन विवादास्पद कृषि कानून को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार व पूरी भाजपा ने करीब एक साल तक देश हित और किसानों की समृद्धि का दरवाजा खोलने वाला बताया अचानक उन्हें क्यों वापस लिया गया। यह सवाल आम तौर पर हर मन में तब उठा जब 19 नवंबर की सुबह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राष्ट्र के नाम अपने संबोधन के जरिए अपनी तपस्या में कुछ कमी को स्वीकारते हुए इन कानूनों को वापस लिए जाने की घोषणा कर रहे थे।
आम तौर पर सबका यही मानना है कि फरवरी-मार्च 2022 में प्रस्तावित उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर विधानसभा के चुनावों में भाजपा की जीत सुनिश्चित करने के लिए प्रधानंत्री मोदी ने ये कदम उठाया है। इनमें भी सबसे ज्यादा अहम उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब है, जहां किसान आंदोलन का खासा असर भाजपा के लिए मुसीबत का सबब बना हुआ था। लेकिन भाजपा के भीतरी सूत्रों की मानें तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह अप्रत्याशित कदम 2022 की चुनावी हार से बचने के लिए नहीं बल्कि 2024 के लोकसभा चुनावों में पार्टी के बुरी तरह से सफाए की आशंका को देखते हुए उठाया गया है। क्योंकि 2024 में लोकसभा चुनावों की जीत का रास्ता 2022 के पांच राज्यों विशेषकर उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों के नतीजों के भीतर से निकलेगा।
यह बात किसी और ने नहीं खुद गृह मंत्री अमित शाह ने अपने लखनऊ दौरे के दौरान एक जनसभा में कही जब उन्होंने कहा कि अगर मोदी जी को 2024 में फिर से प्रधानमंत्री बनाना है तो उसके लिए 2022 में उत्तर प्रदेश में योगी जी को मुख्यमंत्री बनाना होगा। और किसान आंदोलन की वजह से पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सवा सौ विधानसभा सीटों पर भाजपा के समीकरण बिगड़ चुके हैं और लखीमपुर खीरी की हिंसक घटना के बाद किसान असंतोष की आंच तराई से होते हुए मध्य व पूर्वी उत्तर प्रदेश तक पहुंचने की आशंका बढ़ गई है। जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिन्होंने अपने चुनावी राजनीतिक जीवन में 2001 से लेकर अभी तक कोई सीधी हार नहीं देखी है, नहीं चाहते कि उनकी शानदार राजनीतिक जीवन की पारी का अंत किसी शर्मनाक हार से हो। वह अटल बिहारी वाजपेयी की शाइनिंग इंडिया और फील गुड वाली कहानी नहीं दोहराना चाहते हैं।
कोरोना काल में लॉक डाऊन के बीच अचानक जिन तीन कृषि कानूनों को कृषि सुधारों के नाम पर जोर शोर से अध्यादेश के जरिए लाया गया और फिर संसद में विपक्ष के भारी विरोध के बावजूद राज्यसभा में दुर्भाग्यपूर्ण हंगामे के बीच पारित किया गया। जिनके विरोध में करीब एक साल से किसानों के जत्थे दिल्ली की सीमाओं पर डेरा डाले रहे और उन पर हर तरह के छल बल का प्रयोग होने के बावजूद वह नहीं हटे बल्कि किसान नेताओं ने घूम-घूम कर देश भर में इन कृषि कानूनों के विरोध में माहौल तैयार किया और जवाब में उन्हें खालिस्तानी, आतंकवादी, गुंडे, नक्सलवादी माओवादी आढ़तिये विदेशी एजेंट जैसे तमाम तमगों से नवाजा गया।
इसमें मीडिया के एक बड़े हिस्से से लेकर सत्ताधारी दल के नेता, केंद्रीय मंत्री, भाजपा शासित राज्यों के मंत्री, वरिष्ठ नेता और सोशल मीडिया के दस्ते तक शामिल रहे। लेकिन आंदोलनकारी किसानों को न तो पुलिस की लाठियां, आंसू गैस, पानी की बौछारें, बैरीकेड, लाल किले, करनाल और खीरी लखीमपुर जैसी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं डिगा पाईं न ही सर्दी, गरमी, बारिश और कोरोना की दूसरी भयानक लहर और न ही उनके खिलाफ दुष्प्रचार कारगर हुआ और आखिरकार केंद्र सरकार या कहें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपने कदम वापस खींचने पड़े।
दरअसल जिन्होंने भी भाजपा के जमाने से जब नरेंद्र मोदी पार्टी संगठन में विभिन्न पदों पर काम करते थे, उनकी राजनीति और कार्यशैली को बेहद करीब से देखा है, blogs popular यह बात समझते देर नहीं लगेगी कि मोदी ने किसानों को खुश करने के लिए अपने कदम वापस क्यों खींचे। नरेंद्र मोदी ने अपने पूरे राजनीतिक जीवन में व्यक्तिगत विफलता का मुंह कभी नहीं देखा। गुजरात में जब पार्टी की अंदरूनी राजनीति की खींचतान की वजह से उन्हें राज्य की राजनीति से हटाया ग�